लोकल बॉडी चुनावों में वोटर्स ने वंशवादी राजनीति को खारिज किया: एक मिथक को तोड़ा
दशकों से भारत की लोकतांत्रिक दुनिया वंशवादी राजनीति के प्रभाव के अधीन रही है। 21% सांसदों और विधायकों को राजनीतिक परिवारों से जुड़े हुए पाया गया है, देश ने विभिन्न दलों में प्रभावशाली वंशवाद की वृद्धि देखी है। हालांकि, तथ्यों का एक करीब से देखा जाना एक स्पष्ट वास्तविकता को उजागर करता है: वोटर्स ने लोकल बॉडी चुनावों में वंशवादी राजनीति को खारिज नहीं किया है, जैसा कि लोकप्रिय राय में माना जाता है।
असोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) के अनुसार, 2025 के चुनावों में 21% सांसदों और विधायकों को राजनीतिक परिवारों से जुड़ा पाया गया है, जबकि 31% लोकसभा सांसद वंशवादी थे। ये आंकड़े वंशवादी राजनीति के अंतर्निहित प्रकृति का प्रमाण हैं। वंशवाद की व्यापकता केवल राष्ट्रीय स्तर की राजनीति तक सीमित नहीं है, क्षेत्रीय दलों जैसे DMK, Shiv Sena, Samajwadi Party, और TDP ने भी अपने टिकट आवंटन में परिवार के संबंधों को प्राथमिकता दी है। उदाहरण के लिए, हरियाणा में, लाल ट्रियो और हुड्डा परिवार ने स्थानीय राजनीति को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
वंशवादी राजनीति ने बहस का विषय बना हुआ है, आलोचकों ने इसके नकारात्मक प्रभावों पर जोर दिया है, जैसे कि मेरिटोक्रेसी, लोकतंत्र, और आर्थिक विकास पर इसका प्रभाव। उनका दावा है कि वंशवाद लोकतंत्र के सिद्धांतों को नुकसान पहुंचाता है क्योंकि वह प्रतिभा के बजाय वफादारी को प्राथमिकता देता है और ताज़ा प्रतिभा को दबा देता है। इसके अलावा, वंशवाद परिवार के व्यवसायों को प्राथमिकता देता है और ग्राहकवाद को बढ़ावा देता है, जहां अमीर व्यक्तियों और परिवारों को अन्यों की तुलना में प्राथमिकता दी जाती है।
इन आलोचनाओं के बावजूद, वंशवाद भारतीय राजनीति में जारी है। दल वंशवादियों को अपने टिकट देते हैं क्योंकि उन्हें नाम की पहचान, वोट बैंक, संसाधन, और चुनावी योग्यता मिलती है। सांस्कृतिक मूल्य भी वंशवादी राजनीति को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जिसमें परिवार के संबंधों को जाति और धर्म के विभाजन के बीच स्थिरता के रूप में देखा जाता है।
रोचक बात यह है कि भारतीय जनता पार्टी (BJP), जो अपने विरोधी वंशवाद के बारे में जोरदार तरीके से बोलती है, ने अपने वंशवादियों को भी बढ़ावा दिया है, जैसे कि सिंधिया और ठाकुर। यह वंशवादी राजनीति की भारतीय राजनीति में व्यापक प्रकृति को दर्शाता है, जो पार्टी के बंधनों को तोड़ती है।
तो भारतीय लोकतंत्र के लिए इसका क्या अर्थ है? वंशवादी राजनीति की टिकाऊ प्रकृति भारत के शासन और विकास पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालती है। यह शक्ति कुछ परिवारों के हाथों में केंद्रित करती है, जिससे ताज़ा नेतृत्व और मेरिट-आधारित शासन को सीमित किया जाता है। इससे परिवार के नेटवर्क के प्रति नीति का पक्षपात होता है, जिससे नवाचार और आर्थिक प्रतिस्पर्धा को दबा दिया जाता है। इसके अलावा, यह वोटर के विश्वास को कम करता है, क्योंकि वंशवादी उम्मीदवारों के लिए प्रवेश के बाधाएं अधिक होती हैं।
वंशवादी राजनीति के मिथक को तोड़ने के लिए, हमने तथ्यों का विश्लेषण किया है। जबकि लोकल बॉडी चुनावों में वोटर के प्रतिक्रिया के कोई विशिष्ट रिपोर्ट नहीं हैं, हमारी शोध ने एक स्पष्ट वास्तविकता को उजागर किया है: वंशवादी राजनीति भारत में जड़ें जमा चुकी है, जो किसी भी प्रकार के कमी का संकेत नहीं देती है। आंतरिक-दलीय लोकतंत्र और फंडिंग पारदर्शिता जैसे सुधारों का प्रस्ताव किया गया है, लेकिन उनका कार्यान्वयन अभी भी अनिर्धारित है।
निष्कर्ष में, लोकल बॉडी चुनावों में वोटर्स ने वंशवादी राजनीति को खारिज करने के विचार को पुनः मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। जबकि हम भारतीय राजनीति की जटिलताओं का सामना करते हैं, यह महत्वपूर्ण है कि हम वंशवादी राजनीति की टिकाऊ प्रकृति को स्वीकार करें और एक अधिक समावेशी और मेरिट-आधारित शासन प्रणाली की दिशा में काम करें।
सही तथ्य: 21% सांसदों/विधायकों को राजनीतिक परिवारों से जुड़ा (ADR 2025) 31% लोकसभा सांसद वंशवादी थे दल वंशवादियों को पुनर्नियुक्ति की दर अधिक है (75% vs. 65% 2014 में) आंध्र प्रदेश में वंशवाद का उच्चतम हिस्सा 34% है
स्रोत: असोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) लोकसभा सांसदों के डेटा दलों की वेबसाइट और दस्तावेज़ समाचार लेख और शोध पत्र
प्रभाव: वंशवादी राजनीति ताज़ा नेतृत
📰 स्रोत: Hindustan Times - States